तुम्हें चाहना मेरा शौक कभी नहीं रहा न ही आदत तुम केवल ज़रूरत थीं जैसे होती है ज़रूरत साँस लेने की मेरे आँसुओं से जन्मीं थीं तुम अनेक मनोभावों से पोषित हुईं तुम्हारी आँखों से देखा मैंने खुद को गिरते संभलते हुए तो प्रिय ! आज कुछ देना चाहती हूँ उपहारस्वरूप तुम्हें मेरी हर रात्रि का तीसरा पहर सिर्फ तुम्हारा होगा हाँ, इस पर एकाधिकार रहेगा सदा तुम्हारा ऐ ग़ज़ल... ©ऋचा चौधरी "सहर"


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