एक दूजे से उन्हें क्यों बेतहाशा प्यार है दरमियां जिनके खड़ी इक मज़हबी दीवार है मैं बिछड़कर के सनम तुमसे ख़िज़ाँ सी हो गयी क्यों बिना मेरे तुम्हारी ज़िन्दगी गुलज़ार है रख गया क़दमों में मेरे फिर खज़ाना दर्द का दोस्तों, दुश्मन मिरा अब भी बहुत दिलदार है पा लिया सब कुछ मगर ईमान अपना खो दिया जीत कहते हो जिसे वो तो सरासर हार है डर रहा है तू ज़माने भर से यूँ ही ख़्वामख़्वाह जो तिरे पहलू में बैठा है वही गद्दार है रोग, तूफ़ां, भुखमरी सब दे रहे दस्तक यहाँ तेज़, कितनी तेज़ देखो मौत की रफ़्तार है मान बैठी हो "सहर" तुम शायरा खुद को मगर शायरी में ग़लतियों की आज भी भरमार है ©ऋचा चौधरी "सहर"


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