रोज़-ओ-शब ज़लील हम होते चले गए तेरे शहर से हमने मगर हिज़रत कभी न की कितनी ही मर्तबा उन्हें सीने से लगाया और लोग कहते हैं हमने इबादत कभी न की हर फैसला तेरा हमें एतराफ़ तो न था ऐ ज़िन्दगी, पर तुझसे बगावत कभी न की गुमां हुआ के हम भी उनके यार हो गये मलाल के उसने हमें मोहब्बत कभी न की इक चराग़ पर फ़ना अश्क़िया मोम हो गए किसी महताब को पाने की पर चाहत कभी न की उनकी खूबसूरती के क़ायल थे, हकीकत है लेकिन ख़राब हमने अपनी नीयत कभी न की लाख गर्दिशों के मारे वो भी दूर हो गये उनकी याद अपने ज़हन से रुख़सत कभी न की ये बात और है कि हम बदनाम बहुत हैं हाँ पर बेकार हमने अपनी सोहबत कभी न की मयख़ाने के बाद दर-अल-शिफ़ा जाना पड़े इतनी बद्दतर हमने इश्क़ में तबियत कभी न की ©ऋचा चौधरी "सहर "✍


0 comments:

Post a Comment